विचार ही वस्तु बन जाते हैं (Thoughts become things)!!_राम प्रकाश मौर्य जी IRS कलम से
विचार ही वस्तु बन जाते हैं (Thoughts become things)!!_
बहुत सारे लोग, ख़ास तौर पर बहुत सारे स्टूडेंट्स, विभिन्न प्लैटफॉर्म्स पर मुझसे यह सवाल करते हैं कि आप शुद्ध गांव के होकर भी, पूर्ण अशिक्षित वातावरण और पृष्ठभूमि में रहकर भी, आर्थिक अभाव से गुज़र कर भी और ज़्यादा आकर्षक व्यक्तित्त्व के न होते हुए भी, बिना किसी नियमित कोचिंग के, सिविल सर्विसेज एग्जाम इतनी कम उम्र में पास कर लिए, ये कैसे हुआ ??
यक़ीन कीजिये ये सवाल मेरे मन मे भी आता है।
एक महत्त्वपूर्ण चीज़ जो मैं दिल से महसूस करता हूं वो यह है कि मुझे मेरे विचारों ने बनाया है। किसी पश्चिमी मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि "विचार ही वस्तु बन जाते हैं" (Thoughts become things)!
गांव के गरीब और साधनहीन बच्चों को प्रेरणा देने के लिए , उनसे जुड़ने के क्रम में , अभी सितंबर में अपनी पूज्य माताजी की पहली पुण्यतिथि पर अपने विद्यालय के बच्चों के बीच बोल रहा था तो भी यह सवाल आया था।
"विचार ही वस्तु बन जाते हैं" इस वाक्य का सामान्य अभिप्राय यही है कि हम जैसा अपने बारे में सोचते रहते हैं , वैसा होते चले जाते हैं। यानी " प्राप्य के विचार " की आवृत्ति और तीव्रता (frequency एंड intensity) अगर सही (बहुत अधिक) हो तो वो वस्तु हमें भौतिक रूप में भी मिल जाती है।
उदाहरण के लिए ,
अगर हमे कोई बीमारी ,(जैसे माइग्रेन अन्य कोई समस्या) है और हम ये सोचते हैं कि हमे समय समय पर सिर में दर्द होता है , तो ये सिर दर्द होता ही रहेगा।
अगर हम इसके बजाय ये सोचें कि मेरा हेल्थ बहुत अच्छा है , या समस्या अगर है भी तो बहुत छोटी है , और आसानी से अपने आप , या सामान्य इलाज से दूर हो जाएगी , तो ये समस्या अपने आप (या सामान्य इलाज से) समय के साथ दूर हो जाएगी। अब प्रश्न है कि कब तक ऐसा सोचें? एक महीना, दो महीने या तीन महीने? एक साल?? कई साल ?? कब तक?
यहां पर जो ज़रूरी बात है वो यह कि इसको हम समय सीमा से न बांधें, अपने मस्तिष्क को इतना अनुशासित कर लें कि जब तक हमें सिरदर्द का एहसास होना बंद न हो जाये , हम यही सोचें कि हमको कोई समस्या नहीं है और अगर है , तो बहुत छोटी समस्या है , और आसानी से दूर हो जाएगी।
इसी तरह अगर हम साधनों के "अभाव " के बारे में सोचेंगे तोे हमेशा "अभाव " से पाला पड़ेगा , अगर हम ये सोचें की हमारे पास तो सब कुछ है तो हमारे पास एक दिन सब कुछ होगा। समय लग सकता है पर धैर्य रखें। फिर प्रश्न ये है कि कितने दिन तक ऐसा सोचें?? जवाब फिर वोही है कि मस्तिष्क इतना अनुशासित हो कि जब तक सब कुछ हो न जाये तब तक हम उसी विचार को जीते रहें।
बहुत लोगों को कहते सुना होगा कि फलां मंदिर गए, तो मनोकामना पूर्ण हो गई। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? कि किसी मंदिर में जा के किसी देवी या देवता से हम कुछ मांगते हैं तो प्रायः वो चीज़ मिल कैसे जाती है? (जबकि मेरा मानना है कि मन्दिर मस्ज़िद ईश्वर अल्लाह सिर्फ आस्था का विषय हैं, उनका भौतिक प्रभाव सिद्ध या असिद्ध नहीं है)। हां इन शक्तियों में हमारी आस्था मनोविज्ञानिक स्तर पर हमें मज़बूत अवश्य बना सकती है, जिससे कई बार हम उम्मीद् वश प्रयास करते रहते हैं और सफल हो जाते हैं।
हमारे तीव्र विचार हमारी इच्छित वस्तु को उतनी ही तीव्रता (intensity) के साथ आकर्षित करते हैं जितनी intensity के साथ हम उस वस्तु को पाना चाहते हैं। कोई इंसान जब किसी समस्या को ले के मंदिर जाता है तो क्या सोचता है? यही न कि उसको क्या मिले? समाधान ही न?? तो उसके दिमाग मे दिन रात क्या विचार चलता है ??? समाधान.... समाधान... समाधान (जैसे कोई धन प्राप्ति के बारे में मंदिर जाता है तो धन प्राप्ति को ही न सोचेगा?)इसलिए उसको समाधान प्राप्त होता है। इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू ये है कि चूंकि मस्तिष्क में दिन रात यह बात चल रही होती है , तो इंसान समाधान की दिशा में खुद ही आगे बढ़ने लगता है , और समाधान पाने का तीव्र प्रयास (intense effort) करने लगता है।
जिसको समाधान नहीँ मिल पाता वो कहता है कि मंदिर मस्जिद झूट हैं, भगवान कुछ नहीं होते। मेरा स्पष्ट मानना है और शोधों द्वारा ये साबित भी है कि मानव मस्तिष्क इतना शक्तिशाली है कि उसके अन्दर का विचार ही प्राप्य वस्तु (सकारात्मक या नकारात्मक) का सृजन या प्रस्तुतीकरण करता है।
मंत्र ये है कि हमें अपने लक्ष्य के बारे में दिन रात सोचना चाहिए ताकि वो अवचेतन मस्तिष्क में रच बस जाए, और हम दिन रात सोते जागते उस विचार से मुक्त न हो सकें कि हमको ये काम करना है । जैसे कि अगर IAS, IPS, PCS, DOCTOR, ENGINEER या PROFESSOR या सफल बिजनेसमैन में से कोई एक बनना चाहते हैं , तो बाकी सारे विकल्पों को चेतना के स्तर पर बंद कर देना होगा।
अब प्रश्न है कि होगा कैसे ये ?
कुछ मेरे जैसे सौभाग्यशाली होते हैं जिनको ये विचार स्वतः आते थे। मैं दिन रात सिर्फ एक ही सपना देखता था कि मुझे जल्दी से जल्दी भारत सरकार की सबसे बड़ी सर्विस पानी है। पर सब मेरे जैसे सौभाग्यशाली नहीं होते। उनको अपने मस्तिष्क को ऐसे अनुशासित कर के ऐसा ढालना पड़ेगा कि ज़रा सा भी समय जीवन के कामो के बीच मे मिल जाये तो वो यही सोचें कि वो पहले से IAS या IPS हैं। इतना सोचें इतना सोचें कि ये विचार हमारे अवचेतन अस्तित्त्व का हिस्सा बन जाये कि हम पहले से ही एक IAS अफ़सर के तौर पर काम कर रहे हैं । पर ये व्यवहार दुधारी तलवार है, इसमे सावधानी ये रहे कि यह केवल विचार के स्तर पर हो ताकि व्यर्थ के दिखावे और घमंड से बचे रहें। विचार अत्यंत शक्तिशाली परंतु व्यवहार अत्यन्त विनम्र हो, वरना नुकसान हो सकता है।
सुबह उठने के बाद बिस्तर पर थोड़ी देर उस कल्पना को जियें (बन चुके होने का विचार करें न कि बनने की उम्मीद) याद रहे कि "बन चुका हूं" या " किसी भी कीमत पे बनना है" ये विचार होना चाहिए न कि "अभावों" और "कमज़ोरियों" को सोच के ये सोचना है कि प्रयास तो पूरा करूँगा बन सकूँ या न बन सकूँ। "अभाव "और "कमज़ोरियों" का विचार अभाव और कमज़ोरियों वाली freqency को आकर्षित करेगा। ठीक यही काम रात में बिस्तर पर जाने के बाद भी करें। उसी ख़्वाब के साथ जागें , उसी ख्वाब के साथ जियें , उसी ख्वाब के साथ सोएं।
इसकी शुरुआत में थोड़ा कठिनाई हो सकती है पर कुछ दिन में मस्तिष्क स्वानुशासित हो जाएगा तब ये निष्प्रयास रूप से अपने आप होने लगेगा।
रहस्य (the secret) नाम की एक किताब है , जो अत्यंत विद्वान मनोवैज्ञानिकों द्वारा लाखों सफल और असफल दोनों प्रकार के लोगों के जीवन पर शोध के निष्कर्षों पर लिखी गयी है। अगर इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो लगेगा कि मैंने पहले भी विभिन्न साक्षात्कारों में यही बात बोली थी कि मैं शुरू से ही दिन रात अफ़सर बने होने की कल्पना करता था और उसी के अनुरूप प्रयास करता था।
यहां तक कि जब दुर्दान्त गरीबी के उन दिनों में जब पैसा कम होने लगता था तो मन में "अभाव की निराशा" नहीं पैदा होती थी , ऐसा विचार पैदा होता था कि "इतने सारे शुभ चिंतक" हैं , पैसा कहीं न कहीं से मिल ही जायेगा। लोग बिना निजी अनुभव के विश्वास नहीं करेंगे की मुझे जब जब ज़्यादा अभाव होता था , कोई न कोई ये कहते हुए पैसा दे देता था कि बाद में लौटा देना (कई बार बिना मांगे भी मिलते थे) !
कोई बिना मांगे मदद देगा या मांगने पे देगा या मांगने पे भी नहीं देगा , ये आपके उस विचार की तीव्रता (intensity) पे निर्भर करेगा।
प्रश्न ये भी उठ सकता है मन मे की "विचार" कैसे काम करते हैं। शोध से ये साबित हुआ है कि इसकी क्रियाविधि भी विज्ञान की तरह ही है। हमारा मस्तिष्क विचार के रूप में एक ख़ास आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) की तरंगें छोड़ता है , जैसा विचार होगा वैसी तरंगें हमारा मस्तिष्क छोड़ेगा, और इस विशाल ब्रह्मांड में उन तरंगों की फ्रीक्वेंसी से मैच करती हुई वस्तु या वस्तुएं या विचार जहां कहीं भी होगा वो तरंगें उन्हें आकर्षित कर के ले आएंगे। अर्थात विचारों की आवृत्ति और उनकी तीव्रता जितनी ज्यादा होगी आकर्षण भी उतना तीव्र और जल्दी होगा। यह एक थ्योरी नहीं है, यह एक साबित सत्य है। उपरोक्त पुस्तक मैंने अपने संघर्ष के दिनों में नहीं पढ़ी थी परंतु उसमें वर्णित सिद्धान्त संभवतः मेरे सौभाग्य की वजह से मैंने स्वतः अपने साथ लागू किया था । शायद इसलिए कि मैं बचपन मे बेहद कल्पनाशील था और हमेशा ऊंचे ऊंचे ख़्वाब देखा करता था । ये शोध सत्य हों या असत्य पर ये एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि हमारे विचार हमारे लिए नए रास्ते खोजते हैं।
जो मेरे जैसे स्वाभाविक रूप से सौभाग्यशाली नहीं हैं, उनको बस अपने मस्तिष्क में एक अनुशासन पैदा कर के ये सुनिश्चित करना होगा कि वो अपने मन मे उचित आवृत्ति (frequency) के "विचार" पैदा करें। और उस विचार को अच्छे से जियें।
अंत मे ये कहना चाहूंगा कि हमेशा खुश रहें, संवेदनशील और सकारात्मक रहें, साहित्य, संगीत और कला का भी अनुशीलन करें, मुझे पूरा विश्वास है नए रास्ते मिलेंगे।
चूंकि मुझे गाने भी बहुत पसंद हैं तो संदर्भ में एक गाना याद आ रहा .....
"कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे , उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे!
कभी सुख कभी दुख, यही ज़िंदगी है, ये पतझड़ का मौसम घड़ी दो घड़ी है!
नये फूल कल फिर डगर में खिलेंगे ,उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
भले तेज कितना, हवा का हो झोंका ,मगर अपने मन में तू रख ये भरोसा!
जो बिछड़े सफ़र में , तुझे फिर मिलेंगे , उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
कहे कोई कुछ भी, मगर सच यही है लहर प्यार की जो कहीं उठ रही है ,
उसे एक दिन तो किनारे मिलेंगे , उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे!!!!"
दुआओं के साथ
बहुत सारे लोग, ख़ास तौर पर बहुत सारे स्टूडेंट्स, विभिन्न प्लैटफॉर्म्स पर मुझसे यह सवाल करते हैं कि आप शुद्ध गांव के होकर भी, पूर्ण अशिक्षित वातावरण और पृष्ठभूमि में रहकर भी, आर्थिक अभाव से गुज़र कर भी और ज़्यादा आकर्षक व्यक्तित्त्व के न होते हुए भी, बिना किसी नियमित कोचिंग के, सिविल सर्विसेज एग्जाम इतनी कम उम्र में पास कर लिए, ये कैसे हुआ ??
यक़ीन कीजिये ये सवाल मेरे मन मे भी आता है।
एक महत्त्वपूर्ण चीज़ जो मैं दिल से महसूस करता हूं वो यह है कि मुझे मेरे विचारों ने बनाया है। किसी पश्चिमी मनोवैज्ञानिक ने कहा है कि "विचार ही वस्तु बन जाते हैं" (Thoughts become things)!
गांव के गरीब और साधनहीन बच्चों को प्रेरणा देने के लिए , उनसे जुड़ने के क्रम में , अभी सितंबर में अपनी पूज्य माताजी की पहली पुण्यतिथि पर अपने विद्यालय के बच्चों के बीच बोल रहा था तो भी यह सवाल आया था।
"विचार ही वस्तु बन जाते हैं" इस वाक्य का सामान्य अभिप्राय यही है कि हम जैसा अपने बारे में सोचते रहते हैं , वैसा होते चले जाते हैं। यानी " प्राप्य के विचार " की आवृत्ति और तीव्रता (frequency एंड intensity) अगर सही (बहुत अधिक) हो तो वो वस्तु हमें भौतिक रूप में भी मिल जाती है।
उदाहरण के लिए ,
अगर हमे कोई बीमारी ,(जैसे माइग्रेन अन्य कोई समस्या) है और हम ये सोचते हैं कि हमे समय समय पर सिर में दर्द होता है , तो ये सिर दर्द होता ही रहेगा।
अगर हम इसके बजाय ये सोचें कि मेरा हेल्थ बहुत अच्छा है , या समस्या अगर है भी तो बहुत छोटी है , और आसानी से अपने आप , या सामान्य इलाज से दूर हो जाएगी , तो ये समस्या अपने आप (या सामान्य इलाज से) समय के साथ दूर हो जाएगी। अब प्रश्न है कि कब तक ऐसा सोचें? एक महीना, दो महीने या तीन महीने? एक साल?? कई साल ?? कब तक?
यहां पर जो ज़रूरी बात है वो यह कि इसको हम समय सीमा से न बांधें, अपने मस्तिष्क को इतना अनुशासित कर लें कि जब तक हमें सिरदर्द का एहसास होना बंद न हो जाये , हम यही सोचें कि हमको कोई समस्या नहीं है और अगर है , तो बहुत छोटी समस्या है , और आसानी से दूर हो जाएगी।
इसी तरह अगर हम साधनों के "अभाव " के बारे में सोचेंगे तोे हमेशा "अभाव " से पाला पड़ेगा , अगर हम ये सोचें की हमारे पास तो सब कुछ है तो हमारे पास एक दिन सब कुछ होगा। समय लग सकता है पर धैर्य रखें। फिर प्रश्न ये है कि कितने दिन तक ऐसा सोचें?? जवाब फिर वोही है कि मस्तिष्क इतना अनुशासित हो कि जब तक सब कुछ हो न जाये तब तक हम उसी विचार को जीते रहें।
बहुत लोगों को कहते सुना होगा कि फलां मंदिर गए, तो मनोकामना पूर्ण हो गई। कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है? कि किसी मंदिर में जा के किसी देवी या देवता से हम कुछ मांगते हैं तो प्रायः वो चीज़ मिल कैसे जाती है? (जबकि मेरा मानना है कि मन्दिर मस्ज़िद ईश्वर अल्लाह सिर्फ आस्था का विषय हैं, उनका भौतिक प्रभाव सिद्ध या असिद्ध नहीं है)। हां इन शक्तियों में हमारी आस्था मनोविज्ञानिक स्तर पर हमें मज़बूत अवश्य बना सकती है, जिससे कई बार हम उम्मीद् वश प्रयास करते रहते हैं और सफल हो जाते हैं।
हमारे तीव्र विचार हमारी इच्छित वस्तु को उतनी ही तीव्रता (intensity) के साथ आकर्षित करते हैं जितनी intensity के साथ हम उस वस्तु को पाना चाहते हैं। कोई इंसान जब किसी समस्या को ले के मंदिर जाता है तो क्या सोचता है? यही न कि उसको क्या मिले? समाधान ही न?? तो उसके दिमाग मे दिन रात क्या विचार चलता है ??? समाधान.... समाधान... समाधान (जैसे कोई धन प्राप्ति के बारे में मंदिर जाता है तो धन प्राप्ति को ही न सोचेगा?)इसलिए उसको समाधान प्राप्त होता है। इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू ये है कि चूंकि मस्तिष्क में दिन रात यह बात चल रही होती है , तो इंसान समाधान की दिशा में खुद ही आगे बढ़ने लगता है , और समाधान पाने का तीव्र प्रयास (intense effort) करने लगता है।
जिसको समाधान नहीँ मिल पाता वो कहता है कि मंदिर मस्जिद झूट हैं, भगवान कुछ नहीं होते। मेरा स्पष्ट मानना है और शोधों द्वारा ये साबित भी है कि मानव मस्तिष्क इतना शक्तिशाली है कि उसके अन्दर का विचार ही प्राप्य वस्तु (सकारात्मक या नकारात्मक) का सृजन या प्रस्तुतीकरण करता है।
मंत्र ये है कि हमें अपने लक्ष्य के बारे में दिन रात सोचना चाहिए ताकि वो अवचेतन मस्तिष्क में रच बस जाए, और हम दिन रात सोते जागते उस विचार से मुक्त न हो सकें कि हमको ये काम करना है । जैसे कि अगर IAS, IPS, PCS, DOCTOR, ENGINEER या PROFESSOR या सफल बिजनेसमैन में से कोई एक बनना चाहते हैं , तो बाकी सारे विकल्पों को चेतना के स्तर पर बंद कर देना होगा।
अब प्रश्न है कि होगा कैसे ये ?
कुछ मेरे जैसे सौभाग्यशाली होते हैं जिनको ये विचार स्वतः आते थे। मैं दिन रात सिर्फ एक ही सपना देखता था कि मुझे जल्दी से जल्दी भारत सरकार की सबसे बड़ी सर्विस पानी है। पर सब मेरे जैसे सौभाग्यशाली नहीं होते। उनको अपने मस्तिष्क को ऐसे अनुशासित कर के ऐसा ढालना पड़ेगा कि ज़रा सा भी समय जीवन के कामो के बीच मे मिल जाये तो वो यही सोचें कि वो पहले से IAS या IPS हैं। इतना सोचें इतना सोचें कि ये विचार हमारे अवचेतन अस्तित्त्व का हिस्सा बन जाये कि हम पहले से ही एक IAS अफ़सर के तौर पर काम कर रहे हैं । पर ये व्यवहार दुधारी तलवार है, इसमे सावधानी ये रहे कि यह केवल विचार के स्तर पर हो ताकि व्यर्थ के दिखावे और घमंड से बचे रहें। विचार अत्यंत शक्तिशाली परंतु व्यवहार अत्यन्त विनम्र हो, वरना नुकसान हो सकता है।
सुबह उठने के बाद बिस्तर पर थोड़ी देर उस कल्पना को जियें (बन चुके होने का विचार करें न कि बनने की उम्मीद) याद रहे कि "बन चुका हूं" या " किसी भी कीमत पे बनना है" ये विचार होना चाहिए न कि "अभावों" और "कमज़ोरियों" को सोच के ये सोचना है कि प्रयास तो पूरा करूँगा बन सकूँ या न बन सकूँ। "अभाव "और "कमज़ोरियों" का विचार अभाव और कमज़ोरियों वाली freqency को आकर्षित करेगा। ठीक यही काम रात में बिस्तर पर जाने के बाद भी करें। उसी ख़्वाब के साथ जागें , उसी ख्वाब के साथ जियें , उसी ख्वाब के साथ सोएं।
इसकी शुरुआत में थोड़ा कठिनाई हो सकती है पर कुछ दिन में मस्तिष्क स्वानुशासित हो जाएगा तब ये निष्प्रयास रूप से अपने आप होने लगेगा।
रहस्य (the secret) नाम की एक किताब है , जो अत्यंत विद्वान मनोवैज्ञानिकों द्वारा लाखों सफल और असफल दोनों प्रकार के लोगों के जीवन पर शोध के निष्कर्षों पर लिखी गयी है। अगर इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो लगेगा कि मैंने पहले भी विभिन्न साक्षात्कारों में यही बात बोली थी कि मैं शुरू से ही दिन रात अफ़सर बने होने की कल्पना करता था और उसी के अनुरूप प्रयास करता था।
यहां तक कि जब दुर्दान्त गरीबी के उन दिनों में जब पैसा कम होने लगता था तो मन में "अभाव की निराशा" नहीं पैदा होती थी , ऐसा विचार पैदा होता था कि "इतने सारे शुभ चिंतक" हैं , पैसा कहीं न कहीं से मिल ही जायेगा। लोग बिना निजी अनुभव के विश्वास नहीं करेंगे की मुझे जब जब ज़्यादा अभाव होता था , कोई न कोई ये कहते हुए पैसा दे देता था कि बाद में लौटा देना (कई बार बिना मांगे भी मिलते थे) !
कोई बिना मांगे मदद देगा या मांगने पे देगा या मांगने पे भी नहीं देगा , ये आपके उस विचार की तीव्रता (intensity) पे निर्भर करेगा।
प्रश्न ये भी उठ सकता है मन मे की "विचार" कैसे काम करते हैं। शोध से ये साबित हुआ है कि इसकी क्रियाविधि भी विज्ञान की तरह ही है। हमारा मस्तिष्क विचार के रूप में एक ख़ास आवृत्ति (फ्रीक्वेंसी) की तरंगें छोड़ता है , जैसा विचार होगा वैसी तरंगें हमारा मस्तिष्क छोड़ेगा, और इस विशाल ब्रह्मांड में उन तरंगों की फ्रीक्वेंसी से मैच करती हुई वस्तु या वस्तुएं या विचार जहां कहीं भी होगा वो तरंगें उन्हें आकर्षित कर के ले आएंगे। अर्थात विचारों की आवृत्ति और उनकी तीव्रता जितनी ज्यादा होगी आकर्षण भी उतना तीव्र और जल्दी होगा। यह एक थ्योरी नहीं है, यह एक साबित सत्य है। उपरोक्त पुस्तक मैंने अपने संघर्ष के दिनों में नहीं पढ़ी थी परंतु उसमें वर्णित सिद्धान्त संभवतः मेरे सौभाग्य की वजह से मैंने स्वतः अपने साथ लागू किया था । शायद इसलिए कि मैं बचपन मे बेहद कल्पनाशील था और हमेशा ऊंचे ऊंचे ख़्वाब देखा करता था । ये शोध सत्य हों या असत्य पर ये एक मनोवैज्ञानिक सच्चाई है कि हमारे विचार हमारे लिए नए रास्ते खोजते हैं।
जो मेरे जैसे स्वाभाविक रूप से सौभाग्यशाली नहीं हैं, उनको बस अपने मस्तिष्क में एक अनुशासन पैदा कर के ये सुनिश्चित करना होगा कि वो अपने मन मे उचित आवृत्ति (frequency) के "विचार" पैदा करें। और उस विचार को अच्छे से जियें।
अंत मे ये कहना चाहूंगा कि हमेशा खुश रहें, संवेदनशील और सकारात्मक रहें, साहित्य, संगीत और कला का भी अनुशीलन करें, मुझे पूरा विश्वास है नए रास्ते मिलेंगे।
चूंकि मुझे गाने भी बहुत पसंद हैं तो संदर्भ में एक गाना याद आ रहा .....
"कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे , उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे!
कभी सुख कभी दुख, यही ज़िंदगी है, ये पतझड़ का मौसम घड़ी दो घड़ी है!
नये फूल कल फिर डगर में खिलेंगे ,उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
भले तेज कितना, हवा का हो झोंका ,मगर अपने मन में तू रख ये भरोसा!
जो बिछड़े सफ़र में , तुझे फिर मिलेंगे , उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे !
कहे कोई कुछ भी, मगर सच यही है लहर प्यार की जो कहीं उठ रही है ,
उसे एक दिन तो किनारे मिलेंगे , उदासी भरे दिन कभी तो ढलेंगे!!!!"
दुआओं के साथ
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