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"मेरी डायरी से यथारूप [ दिनांक 17.02.2004]"

मुझे बचपन से ही डायरी लिखने का शौक रहा है। मेरी डायरी का एक पसंदीदा लेख, जो मैंने 17.02.2004 को लिखा था, मेरे दिल की आवाज़ को वया करता है और आज भी मेरे दिल को छु जाता है। इसके अंदर निहित भावनाओं की ओर मैं आपका ध्यान चाहता हूँ और भाषा के लिए क्षमा।  इसे तात्कालिक परिस्थितियों  के संदर्भ में पढ़ा जाय तो ज्यादा उपयुक्त होगा। "राजग सरकार  'फील गुड' का प्रचार ज़ोर-शोर से कर रही है। सरकार द्वारा किए जा रहे प्रचार ने व्यक्ति की आँखों के सामने विकास का पर्दा डाल दिया है। जिससे सामान्य व्यक्ति, वास्तविक   स्थिति का निर्णय नहीं कर पा रहा है। फील गुड का प्रभाव कहाँ दिखाई दे रहा है? केवल शहरों की आधुनिक सुविधाओं के विकास में? विदेशी मुद्रा भंडार की वृद्धि में? या शेयर बाजार की ऊंचाई में? क्या सरकार इन्हीं के आधार पर फील गुड  का प्रचार कर रही है?  ये कैसी विडम्बना है कि दिल्ली के वातानुकूलित कमरों में बैठ कर देश कि नव्ज देखी जा रही है। एक ओर गरीब व्यक्ति दो जून की रोटी के  लिए संघर्षरत है। बेरोजगार व्यक्ति बेरोजगारी से त्रस्त है। उन्हें रोजगार देनेवाला कोई नहीं...

"एक गुड़िया की पुकार"

मेरा नाम गुड्डी है। मेरी काकी (माँ) मुझे प्यार से गुड़िया बुलाती है। मैं धौलपुर जिले (राजस्थान) के एक छोटे से गाँव में पली-बढ़ी हूँ। मेरे पिता किसान हैं। काकी घर के काम के साथ-साथ खेत के काम में भी काका (पिता) का हाथ बटाती है। पशुओं का काम भी काकी करती है। काका के पास एक बीघा खेत, दो भैंस और एक गाय है। घर का प्रतिदिन का खर्च दूध बेच कर चलता है। खेत की कमाई में से साहूकार का पैसा दिया जाता है, जो साल भर विभिन्न ख़र्चों, जैसे दवाइयों का खर्च, त्योहारों का खर्च, हमारे वार्षिक कपड़ों का खर्च, भात-पछ का खर्च (gifts have to be given to sisters and daughters on various occasion) इत्यादि के लिए लिया जाता है। काका हमेशा मूल धन से ज्यादा व्याज का पैसा साहूकार को चुकाते हैं। हाँ, काका का सपना है कि अपना भी एक पक्का घर हो और इसलिए काका कुछ-कुछ पैसा उसके लिए बचाते हैं।      मैं काकी के लिए खुशकिस्मती लेकर नहीं आई क्योंकि मैं काकी की तीसरी बेटी हूँ और बेटी को वारिस नहीं माना जाता है। दादा-दादी काकी को उलाहना देते हैं कि वह उनके परिवार को वारिस नहीं दे सकती। बेटी तो पराया धन होता है...